आयुर्वेद शास्त्र में लंघन का महत्वपूर्ण उपयोग है। लंघन के लाभ वर्णित करते हुए शास्त्रकार कहते हैं लंघन से बढे हुए दोषों का क्षय होता है। अग्नि का संरक्षण होता है, विज्वरत्व याने शरीर से व्याधि की मुक्ति होती है, शरीर में लघुता आती है, तृष्णा क्षुधा एवं अग्नि इनका उदीरण होता है।
लंघन करते हुए कुछ ऐसे पदार्थों को लेना चाहिए जिससे शरीर में लघुता बनी रहे, ज्वर, अतिसार आदि व्याधी में शरीर को बल प्राप्त करने के लिए लघु द्रव्यों का सेवन करना चाहिए।
जैसे अग्नि संधुक्षण करने के लिए हम छोटी-छोटी लकड़ी डालते हैं, उसके बाद बड़ी लकड़ियों का प्रयोग किया जाता है वैसे ही शरीर का अग्नि बढ़ाने के लिए छोटे-छोटे तथा लघु द्रव्यों का इस्तेमाल करना चाहिए। अग्नि की ताकत जैसे बढ़ती है वैसे पचन करने योग्य द्रव्य से युक्त आहार का सेवन करना चाहिए ।
देखा जाए तो किसी से भी व्याधि में शरीर में अग्नि विकृति रहती है । अग्नि कम रहता है उसे अग्निमांद्य कहते हैं । हर ज्वर में या हर व्याधि में यह होता ही है ऐसे आयुर्वेद कहता है। क्योंकि सर्व रोगों का उत्पत्ति कारण ही अग्निमांद्य है। अगर इस प्रकार के अग्नि को हम पचन होने में भारी ऐसे कुछ पदार्थ देते हैं तो यह अग्नि विकृति और भी बढ़ जाती है।
किसी भी फलों का रस, हरे पत्ते वाली सब्जियां, अंकुरित धान्य, विभिन्न प्रकार के फल यह सभी गुरु होते हैं मतलब पचन होने में मुश्किल होते हैं।
और ऐसे फलों के रस या फल या अंडा, नॉनवेज आदि से युक्त अन्न हम रुग्णों को व्याधि अवस्था में देते हैं तो उनकी अग्नि और भी विकृत हो जाती है। इसलिए इनको लंघन ही देना चाहिए। आयुर्वेद शास्त्र में लंघन के दस प्रकार वर्णित है। चतुः प्रकार संशोधन यानी वमन, विरेचन, बस्ती, रक्तमोक्षण तथा तृष्णा अवरोध, वात सेवन, आतप सेवन, व्यायाम, क्षुधा वेग धारण, दीपन, पाचन आदि भेद लंघन के वर्णित है।
ऐसे विकारों में क्या देना चाहिए इसका वर्णन अगर शास्त्र में हम देखते हैं तो सबसे प्रथम क्रमांक में पेया का वर्णन आया है। पेया में द्रव भाग अधिक होता है और घना भाग नही होता। यह 14 गुने जल में रक्त शाली को याने लाल चावल को सिद्ध कर तैयार की जाती है। यह पेया लघु यानी पचने में हल्की, हितकर, थकान को दूर करने वाली है अंग में होने वाली जकडाहट, अतिसार , दुर्बलता, उदर रोग एवं ज्वर को नष्ट करती है। यह पेया अग्नि दीपक, पाचक, वातदोष को तथा मलको अनुलोमन करती है, और स्वेद को बढ़ाती है। ऐसी लघु पेया का उपयोग व्याधियों में करना चाहिए। पंचकर्म के बाद संसर्जन क्रम में यह पेया उपयोग मैं आ सकती है। व्याधि के बाद अगर शरीर में मंदज्वर का प्रवर्तन, दुर्बलता, थकावट, श्रम ऐसे लक्षण है तो अन्न काल में केवल पेया का उपयोग ही करना चाहिए। आमजन्य विकृति तथा आमवात में इस पेया का उपयोग हो सकता है। दीपन, पाचन जैसे द्रव्य से सिद्ध पेया अगर आमवात तथा आमजन्य विकार में तथा अजीर्णजन्य विकार में अगर दे, तो यह विकार तुरंत कम हो जाते हैं। रुग्ण का बल भी कायम रहता है। इस पेया को बालक, गर्भिणी, प्रसूता माता, यात्रा करने के बाद थके हुए यात्री, ज्वर आदि रोगों से पीड़ित रुग्ण, छोटे बालक इनको अन्न काल में आहार स्वरूप भी दे सकते हैं। इस गुणकारी पेया का उपयोग बच्चे 6 माह के होने के बाद भी कर सकते हैं तथा वृद्धावस्था में अग्नि दुर्बलता होने पर अग्नि संरक्षण तथा बलरक्षण करने के लिए भी पेया का इस्तेमाल होता है।
श्री ब्रह्मचैतन्य आयुर्वेद द्वारा बनाई हुई ब्रह्मपेया इस प्रकार के पाचन द्रव्यों से सिद्ध और लघु है। इस ब्रह्मपेया का उपरोक्त लक्षण में हम वैद्य की सलाह से प्रयोग कर सकते हैं।
वैद्य श्रीरंग छापेकर एम् डी (आयु)
श्री ब्रह्मचैतन्य आयुर्वेद
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